Rahim Das Dohe

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अब्दुल रहीम खानखाना 17 दिसंबर 1556 ईवी को लाहौर में जन्मे थे। वे इस्लाम धर्म के अनुयायी थे। सन् 1576 में, उन्हें गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया था। 28 वर्ष की उम्र में अकबर ने उन्हें खानखाना के उपाधि से सम्मानित किया। उन्होंने बाबर की आत्मकथा को तुर्की से फारसी में अनुवाद किया। वे नौ रत्नों में से एक थे, जिनकी कलम और तलवार दोनों विधाओं पर समान अधिकार था। उनकी मृत्यु 1 अक्टूबर 1627 ई. को हुई। चलिए, अब हम रहीम दास के दोहे के बारे में जानते हैं।


Literature

|| रहीम दास के दोहे ||

 

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय |
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय || (1)

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है। इसे बिना सोचे-समझे तोड़ना उचित नहीं होता। अगर यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है, तो फिर इसे फिर से जुड़ाना कठिन होता है और यदि जुड़ भी जाए, तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।

 

क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात |
कह रहीम हरी का घट्यौ, जो भृगु मारी लात || (2)

अर्थ : उम्र से बड़े लोगों को क्षमा शोभा देती हैं, और छोटों को उत्पात। रहीम कहते हैं जैसे भृगु के लात मारने से हरी (श्री विष्णु जी ) घट नहीं गए [अपितु भृगु को अपनी गलती का एहसास हुआ] |

 

बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय॥ (3)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जब ओछे ध्येय के लिए लोग बड़े काम करते हैं तो उनकी बड़ाई नहीं होती है। जब हनुमान जी ने धोलागिरी को उठाया था तो उनका नाम ‘गिरिधर’ नहीं पड़ा क्योंकि उन्होंने पर्वत राज को छति पहुंचाई थी, पर जब श्री कृष्ण ने पर्वत उठाया तो उनका नाम ‘गिरिधर’ पड़ा क्योंकि उन्होंने सर्व जन की रक्षा हेतु पर्वत को उठाया था।

 

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार,
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार|| (4)

अर्थ: यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए,क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए।

 

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय |
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे होय || (5)

अर्थ: दुखी समय में सभी व्यक्ति भगवान को चिंतन करते हैं। सुखी समय में कोई भी चिंतन नहीं करता, यदि सुखी समय में भी चिंतन करते तो दुख होता ही नहीं।

 

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर || (6)

अर्थ: बड़े होने का यह मतलब नहीं हैं की उससे किसी का भला हो। जैसे खजूर का पेड़ तो बहुत बड़ा होता हैं लेकिन उसका फल इतना दूर होता है की तोड़ना मुश्किल का कम है |

 

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय || (7)

अर्थ: अपने भीतर के अहंकार को हटा कर, ऐसी बात करनी चाहिए जिससे दूसरों को और खुद को ख़ुशी मिले।

 

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं|| (8)

अर्थ: कौवा और कोयल, रंग में एक समान होते हैं। जब तक वे बोलते नहीं, उनकी पहचान नहीं होती। परंतु जब वसंत ऋतु आती है, तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।

 

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि |
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि || (9)

अर्थ: बड़ों को देखकर छोटों को भगा नहीं देना चाहिए। क्योंकि जहां छोटे का काम होता है वहां बड़ा कुछ नहीं कर सकता। जैसे कि सुई के काम को तलवार नहीं कर सकती। 

 

रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ |
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ || (10)

अर्थ: आंसू नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही देगा.

 

जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह |
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह || (11)

अर्थ: जैसी इस देह पर पड़ती है – सहन करनी चाहिए, क्योंकि इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा पड़ती है. अर्थात जैसे धरती शीत, धूप और वर्षा सहन करती है, उसी प्रकार शरीर को सुख-दुःख सहन करना चाहिए|

 

रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय |
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय || (12)

अर्थ: ऐसे व्यवहार की प्रशंसा की जानी चाहिए, जो घड़े और रस्सी के व्यवहार  के समान हो। घड़ा और रस्सी स्वयं जोखिम उठाकर दूसरों को जल पिलाते हैं। जब घड़ा कुएँ में जाता है, तो रस्सी और घड़े के टूटने का खतरा होता है।

 

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात || (13)

अर्थ: उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है। झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है। सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है।

 

वरू रहीम  कानन भल्यो वास करिय फल भोग |
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग|| (14)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का भोजन करें।

 

राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ |
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ || (15)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि होनहार अपने ही हाथ में होती, यदि जो होना है उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे गए और सीता का हरण हुआ। क्योंकि होनी को होना था – उस पर हमारा बस न था न होगा, इसलिए तो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।

 

माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर|| (16)

अर्थ: माघ मास आने पर  टेसू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है। इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है. मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।  

 

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग|| (17)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है

 

निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ |
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ || (18)

अर्थ: अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता।

 

खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय || (19)

अर्थ: खीरे के कड़वेपन को दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटकर नमक लगाकर घिसा जाता है। रहीम कहते हैं कि कटुवाचन बोलने वाले के लिए यही सजा उचित है।

 

वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर || (20)

अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं।

 

संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं |
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं || (21)

अर्थ: जैसे कि दिन में चंद्रमा आभाहीन हो जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन में फंसकर अपना धन गंवा देता है, वह निष्प्रभ हो जाता है।

 

एकहि साधै सब सधैए, सब साधे सब जाय |
रहिमन मूलहि सींचबोए, फूलहि फलहि अघाय || (22)

अर्थ: एक को साधने से सब सधते हैं। सब को साधने से सभी के जाने की आशंका रहती है – वैसे ही जैसे किसी पौधे के जड़ मात्र को सींचने से फूल और फल सभी को पानी प्राप्त हो जाता है और उन्हें अलग अलग सींचने की जरूरत नहीं होती है।

 

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय || (23)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे के दुःख को सुनकर लोग ईठला भले ही लें, उसे बाँटकर कम करने वाला कोई नहीं होता।

 

रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत |
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत || (24)

अर्थ: ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।

 

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन || (25)

अर्थ: बारिश के मौसम को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया हैं। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं तो इनकी सुरीली आवाज को कोई नहीं पूछता, इसका अर्थ यह हैं की कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रहना पड़ता हैं। कोई उनका आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता हैं |

 

रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं |
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं || (26)

अर्थ: जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।

 

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय || (27)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं। 

 

ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै || (28)

अर्थ: ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए। हर अवस्था में उससे हानि होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है| 

 

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा |
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार || (29)

अर्थ: रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।  

 

तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस |
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास || (30)

अर्थ: जिससे कुछ पा सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना उचित है, क्योंकि पानी से रिक्त तालाब से प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है।

साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान |
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान || (31)

अर्थ: रहीम  कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।

 

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान || (32)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर भी अपना पानी स्वयं नहीं पीता है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के कार्य के लिए संपत्ति को संचित करते हैं।

 

रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत |
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत || (33)

अर्थ: गिरे हुए लोगों से न तो दोस्ती अच्छी होती हैं, और न तो दुश्मनी। जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही अच्छा नहीं होता |

 

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून |
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून || (34)

अर्थ : रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।

 

मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय |
‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय || (35)

अर्थ: सच्चा मित्र वही है, जो विपदा में साथ देता है। वह किस काम का मित्र, जो विपत्ति के समय अलग हो जाता है? मक्खन मथते-मथते रह जाता है, किन्तु मट्ठा दही का साथ छोड़ देता है।

 

 बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय || (36)

अर्थ: मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे एकबार यदि दूध फट गया तो कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं बनाया जा सकता |

 

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान |
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान || (37)

अर्थ: सारा संसार जानता हैं की खैरियत, खून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा छुपाने से नहीं छुपता हैं।

 

जो रहीम ओछो बढै, तौ अति ही इतराय |
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ों जाय || (38)

अर्थ: लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत इतराते हैं। वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में ज्यादा फ़र्जी बन जाता हैं तो वह टेढ़ी चाल चलने लता हैं।

 

चाह गई चिंता मिटीमनुआ बेपरवाह |
जिनको कुछ नहीं चाहिए, वे साहन के साह || (39)

अर्थ: जिन लोगों को कुछ नहीं चाहिए वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना तो किसी चीज की चाह हैं, ना ही चिन्ता और मन तो पूरा बेपरवाह हैं।

 

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं || (40)

अर्थ: रहीम अपने दोहें में कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती।  

 

मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय |
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय || (41)

अर्थ: मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते हैं तो अच्छे लगते हैं लेकिन अगर एक बार वो फट जाएं तो कितने भी उपाय कर लो वो फिर से सहज और सामान्य रूप में नहीं आते।

 

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर |
जब नाइके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर || (42)

अर्थ: इस दोहे में रहीम का अर्थ है की किसी भी मनुष्य को ख़राब समय आने पर चिंता नहीं करनी चाहिये क्योंकि अच्छा समय आने में देर नहीं लगती और जब अच्छा समय आता हैं तो सबी काम अपने आप होने लगते हैं।

 

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग || (43)

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती. जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते|

 

रहिमन वे नर मर गये, जे कछु मांगन जाहि |
 उतने पाहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि || (44)

अर्थ: जो इन्सान किसी से कुछ मांगने के लिये जाता हैं वो तो मरे हैं ही परन्तु उससे पहले ही वे लोग मर जाते हैं जिनके मुह से कुछ भी नहीं निकलता हैं।

 

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय |
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय || (45)

अर्थ: संकट आना जरुरी होता हैं क्योकी इसी दौरान ये पता चलता है की संसार में कौन हमारा हित और बुरा सोचता हैं।

 

जे गरिब पर हित करैं, हे रहीम बड |
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग || (46)

अर्थ: जो लोग गरिब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं। जैसे सुदामा कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं।

 

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय |
बारे उजियारो लगे, बढे अँधेरो होय || (47)

अर्थ : दिये के चरित्र जैसा ही कुपुत्र का भी चरित्र होता हैं. दोनों ही पहले तो उजाला करते हैं पर बढ़ने के साथ अंधेरा होता जाता हैं |

 

चाह गई चिंता मिटीमनुआ बेपरवाह |
जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे साहन के साह || (48)

अर्थ : जिन लोगों को कुछ नहीं चाहिये वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना तो किसी चीज की चाह हैं, ना ही चिन्ता और मन तो पूरा बेपरवाह हैं।

 

जे सुलगे ते बुझि गये बुझे तो सुलगे नाहि
रहिमन दाहे प्रेम के बुझि बुझि के सुलगाहि || (49)

अर्थ: आग सुलग कर बुझ जाती है और बुझने पर फिर सुलगती नहीं है । प्रेम की अग्नि बुझ जाने के बाद पुनः सुलग जाती है। भक्त इसी आग में सुलगते हैं ।

 

धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय
जियत कंज तजि अनत वसि कहा भौरे को भाय || (5)

अर्थ: इस Rahim Ke Dohe बताया गया है की मछली का प्रेम धन्य है जो जल से बिछड़ते हीं मर जाती है। भौरा का प्रेम छलावा है जो एक फूल का रस ले कर तुरंत दूसरे फूल पर जा बसता है। जो केवल अपने स्वार्थ के लिये प्रेम करता है वह स्वार्थी है।